डर पर जीत ही असली जीत है
० श्याम कुमार कोलारे ०
इतिहास गवाह है कि महान लोग डर को हराकर ही महान बने। अगर महात्मा गांधी अंग्रेजों से डर जाते तो शायद आज भी हम गुलाम होते। उन्होंने हिम्मत दिखाई और निडर होकर सत्य और अहिंसा का रास्ता अपनाया। भगत सिंह अगर मौत से डरते तो हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर न चढ़ते। अब्दुल कलाम अगर गरीबी और असफलताओं से डर जाते तो भारत को मिसाइल मैन न मिल पाता। यही फर्क है डर के गुलाम और डर पर विजय पाने वाले इंसान में। लेकिन डर को हराना आसान नहीं होता।
डर और सफलता का रिश्ता गहरा है। डर हमेशा कहता है मत करो, तुम हार जाओगे। लेकिन हिम्मत कहती है करो, अगर गिरे तो सीखोगे। डर हमें वहीं रोक देता है जहाँ हम हैं, जबकि हिम्मत हमें वहाँ ले जाती है जहाँ हम जाना चाहते हैं। इसीलिए सफलता उन्हीं को मिलती है जिनके पास हिम्मत होती है। जीवन में कई बार लोग हमें ताने देंगे, मजाक उड़ाएँगे, हमारी कोशिशों को व्यर्थ कहेंगे। लेकिन जब हम हिम्मत से आगे बढ़ते हैं, तो वही लोग बाद में हमें सम्मान देने लगते हैं।
डर हमेशा हमें दूसरों का गुलाम बना देता है, यह पंक्ति जीवन का एक बहुत बड़ा सत्य अपने भीतर समेटे हुए है। इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन कोई दूसरा व्यक्ति, कोई परिस्थिति या कोई चुनौती नहीं होती, बल्कि उसका अपना डर होता है। यही डर हमें कमजोर बनाता है, आत्मविश्वास छीन लेता है और हमें दूसरों की बातों व उनके दबाव में जीने पर मजबूर कर देता है। डर का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह दिखने में वास्तविक लगता है, जबकि इसकी असली जड़ केवल हमारे मन में होती है।
जब तक हम इसे सच मानते रहते हैं, यह हमें बांधकर रखता है। लेकिन जैसे ही इंसान भीतर से हिम्मत जुटाता है और आत्मविश्वास के साथ खड़ा हो जाता है, तो वही लोग जो डराते थे, सिर झुकाकर सामने आते हैं।डर हमेशा इंसान को दूसरों का गुलाम बना देता है। यह एक साधारण-सी बात नहीं बल्कि जीवन का सबसे गहरा सच है। इंसान अक्सर दूसरों से इसलिए हार जाता है क्योंकि वह उनके डराने की कोशिश को सच मान लेता है। जब तक हम डर के अधीन रहते हैं, तब तक लोग हमें नीचा दिखाते हैं, हमें दबाते हैं और हमें अपनी शर्तों पर जीने के लिए मजबूर करते हैं।
लेकिन जैसे ही इंसान भीतर से हिम्मत जुटाकर आत्मविश्वास से खड़ा हो जाता है, तो वही लोग जो कभी डराते थे, सिर झुकाकर सामने खड़े हो जाते हैं। यही कारण है कि जिंदगी में जीतने का पहला और सबसे जरूरी कदम है डर पर काबू पाना। डर वास्तव में कोई ठोस चीज़ नहीं है, यह केवल हमारे दिमाग में होता है। यह हमारी सोच से पैदा होता है और हमारी कल्पना में पलता है। जैसे रात के अंधेरे में हमें लगता है कि कहीं छाया में कोई भूत खड़ा है,
जबकि सुबह होने पर पता चलता है कि वह तो केवल एक पेड़ की डाल थी। डर भी बिल्कुल ऐसा ही है—असली नहीं, लेकिन हमें असली लगता है। यह हमें रोकता है, कमजोर करता है और आत्मविश्वास छीन लेता है। सोचिए, एक बच्चा पहली बार साइकिल चलाना सीख रहा है। उसे गिरने का डर होता है, लेकिन जब वह डर पर काबू पाकर पैडल मारना शुरू करता है, तभी संतुलन बनाना सीखता है। अगर वह केवल डर के कारण कोशिश ही न करे तो कभी साइकिल नहीं चला पाएगा।
यह छोटी-सी घटना हमें बड़ा सबक देती है कि डर केवल तभी खत्म होता है जब हम उसे चुनौती देते हैं। हमारे आसपास भी बहुत से उदाहरण मिलते हैं। गाँव का वह लड़का जो पढ़ाई के लिए शहर जाने से डरता था क्योंकि सोचा करता था कि बड़े शहर में लोग उसका मजाक उड़ाएँगे, लेकिन जब उसने हिम्मत दिखाई तो आज वही लड़का नौकरी करके अपने पूरे परिवार का सहारा बन गया।
एक युवती जो मंच पर बोलने से डरती थी, लोगों की नजरों से घबराती थी, उसने एक दिन तय किया कि वह इस डर को हराएगी। धीरे-धीरे अभ्यास किया, छोटे-छोटे समूहों के सामने बोली और आज वही युवती हजारों लोगों के बीच भाषण देती है। फर्क केवल इतना था कि उन्होंने डर को अपने रास्ते की दीवार बनने नहीं दिया।
इतिहास गवाह है कि महान लोग डर को हराकर ही महान बने। अगर महात्मा गांधी अंग्रेजों से डर जाते तो शायद आज भी हम गुलाम होते। उन्होंने हिम्मत दिखाई और निडर होकर सत्य और अहिंसा का रास्ता अपनाया। भगत सिंह अगर मौत से डरते तो हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर न चढ़ते। अब्दुल कलाम अगर गरीबी और असफलताओं से डर जाते तो भारत को मिसाइल मैन न मिल पाता। यही फर्क है डर के गुलाम और डर पर विजय पाने वाले इंसान में। लेकिन डर को हराना आसान नहीं होता।
इसके लिए सबसे पहले हमें अपने डर को पहचानना पड़ता है। हमें खुद से पूछना होगा—“मुझे आखिर डर किस बात का है?” क्या यह असफल होने का डर है, या दूसरों की आलोचना का, या भविष्य को लेकर चिंता का? जब हम डर को पहचान लेते हैं, तो उसका असर कम होने लगता है। इसके बाद जरूरत होती है सकारात्मक सोच की। हमें बार-बार खुद से कहना होगा कि “मैं कर सकता हूँ, मैं सफल हो सकता हूँ।
” यही सोच धीरे-धीरे हमारे भीतर आत्मविश्वास जगाती है। जीवन की छोटी-छोटी असफलताओं को भी हमें डर का सबूत नहीं बल्कि अनुभव का सबक मानना चाहिए। सोचिए, अगर कोई बच्चा एक बार गिर जाने के बाद दोबारा चलने की कोशिश ही न करे तो वह कभी चलना नहीं सीख पाएगा। वैसे ही बड़े सपनों की ओर बढ़ते समय असफलताएँ आती हैं, लेकिन वे हमें मजबूत बनाती हैं। डर को खत्म करने का सबसे बड़ा उपाय है खुद पर भरोसा करना। जब आप खुद पर विश्वास कर लेते हैं तो पूरी दुनिया आपके साथ खड़ी हो जाती है।
डर और सफलता का रिश्ता गहरा है। डर हमेशा कहता है मत करो, तुम हार जाओगे। लेकिन हिम्मत कहती है करो, अगर गिरे तो सीखोगे। डर हमें वहीं रोक देता है जहाँ हम हैं, जबकि हिम्मत हमें वहाँ ले जाती है जहाँ हम जाना चाहते हैं। इसीलिए सफलता उन्हीं को मिलती है जिनके पास हिम्मत होती है। जीवन में कई बार लोग हमें ताने देंगे, मजाक उड़ाएँगे, हमारी कोशिशों को व्यर्थ कहेंगे। लेकिन जब हम हिम्मत से आगे बढ़ते हैं, तो वही लोग बाद में हमें सम्मान देने लगते हैं।
सोचिए, जब कोई गरीब बच्चा डॉक्टर या अफसर बनता है तो वही लोग जो कभी उसे नीचा दिखाते थे, उसके आगे सिर झुकाते हैं। यह केवल हिम्मत और आत्मविश्वास की जीत होती है। आखिरकार, यह समझना जरूरी है कि डर केवल एक मानसिक परछाई है। जब तक हम उससे भागते रहते हैं, वह हमें पीछा करता है। लेकिन जैसे ही हम उसकी आँखों में आँख डालकर खड़े हो जाते हैं, वह परछाई मिट जाती है। जिंदगी में डर को हावी मत होने दीजिए। याद रखिए,
डरते वही हैं जिनके पास खोने को कुछ नहीं होता और जीतते वही हैं जिनके पास हिम्मत होती है। इसलिए अपनी हिम्मत को हथियार बनाइए, आत्मविश्वास को कवच बनाइए और सकारात्मक सोच को साथी बनाइए। जब आप ऐसा करेंगे, तब देखिए कैसे आपकी जिंदगी बदल जाती है। जो लोग कभी आपको डराते थे, वही आपके सामने सिर झुकाएँगे। जो लोग कभी आपका मजाक उड़ाते थे, वही आपको आदर्श मानेंगे। क्योंकि असली जीत वही है जो आप अपने डर पर हासिल करते हैं। डर को हराना ही जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। यही प्रेरणा है, यही संघर्ष है और यही आत्मविश्वास का सत्य है।

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