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ग़ज़ल

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० मुहम्मद नासिर ०  ले के इन बातों का कुछ भी ना असर हो गए हो आप कितने बे खबर आ रहा है दूर से तूफान इक किस तरह से अब बचेगा यह शहर? देखना है इस सफर के बाद मे ले के जायेगा मुक़द्दर अब किधर ? देखता हूँ उस पे मेरी बात का हो रहा है थोडा थोडा सा असर! रात के गहरे अंधेरे देख ले मुस्कुराती आ गई फिर से सहर गम खुशी के आते जाते खेल में जिंदगी होती रही यूँ ही बसर केसे बतलाएगा नासिर आज, कि दिख रहा क्यों चाँद इतना बे असर

अलका सक्सेना की पुस्तक ‘अब जब बात निकली है’ का विमोचन

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० आशा पटेल ०  जयपुर|. सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की पूर्व अतिरिक्त निदेशक और लेखिका अलका सक्सेना की पुस्तक ‘अब जब बात निकली है’ का विमोचन झालाना डूंगरी स्थित राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति, जयपुर के सभागार में हुआ। मुख्य अतिथि, पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव राकेश वर्मा, मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी गोविन्द पारीक, पूर्व जनसम्पर्क आयुक्त सुनील शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र बोड़ा, गुलाब बत्रा और महेश शर्मा ने पुस्तक का विमोचन किया।  पुस्तक पर वक्ताओं ने कहा कि यह कृति न केवल संवेदनशील अभिव्यक्तियों का संकलन है, बल्कि इसमें जीवन के गहरे अनुभवों की झलक मिलती है। साथ ही मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने को प्रेरित करती हैं। वक्ताओं ने लेखिका के रचनात्मक और प्रेरणादायक कार्य की सराहना करते हुए कहा, यह कृति केवल एक जीवनी नहीं है, बल्कि एक दृष्टि और एक दर्शन है। उन्होंने कहा जीवन हमें यह सिखाता है कि जनसम्पर्क केवल पुस्तकों तक सीमित ज्ञान नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की कला है।  पुस्तक लेखक अलका सक्सेना की यह पुस्तक न केवल ज्ञानवर्धक है,बल्कि हमें सोचने के लिए प्रेरित करती है। इस अवसर पर मुख्य अ...

नए ज़माने की हवा

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० मुहम्मद नासिर ०  नए ज़माने की हवा से हम बड़े परेशान क़दम क़दम पर करती हैं यह हम को हैरान। हवा हमेशा से चलती है फूल, कली इस से खिलती है। लेकिन यह जो ज़माना इसकी हवा निराली है इसने फेस बुक और मैसेंजर या हू, ट्विटर् और व्हाट्स एप के चिड़िया संग मे पाली है। इस चिड़िया की चल तेज है और इशारा खूं रेज़ है। यह सब को बहलती है उस जग में ले जाती है जिस मे सब कुछ थमा हुआ है और ज़माना रुका हुआ है। वक़्त की यह बर्बादी है चिड़िया फिर भी प्यारी है।

पुराने दोस्त से मुलाकात

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० मुहम्मद नासिर ०  आज एक दावत में उस पुराने दोस्त से मुलाक़ात हो गई जो बचपन के बहतरीन दिनों का साथी था जिस से सुबह ओ शाम का कभी ना टूटने वाला नाता था और बचपन और आती जवानी का साथ हम दोनो ने साथ गुजारा था। फिर वक़्त ने करवट ली जिंदगी बदली वो ना जाने कहाँ और में ना जाने कहाँ इस भरी दुनिया में खो गए एक दुस्ते से जुदा हो गए। आज इस मुलाक़ात ने वक़्त को माज़ी की गोद से उठा कर हमारे पहलू मे बिठा दिया है। हमे हमारा बचपन फिर से लौटा दिया है। हम मुस्कुरा रहे हैं एक दूसरे को अपनी जिंदगी के वाकियात बता रहे हैं और यह कसम खा रहे हैं " हमेशा मिलते रहेंगे और जिंदगी को ढलती उम्र में जवान बनाए रखेंगे"

अहसास

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०  मुहम्मद नासिर ०  आज मोहताज चार कंधों का शान से जो जमीं पे चलता था छोड़ कर यह जहान जायेंगें यह कभी ना समझता था। यही गफलत सभी पे छाई है बे खुदी किस तरह से आई है जानते सब हैं मौत आनी है जान हर एक शेह की जानी है फिर भी वो काम करते जाते हैं जो दिलों को बहुत दुखाते हैं। काश, अहसास जाग जाए तेरा दिल का शैतान भाग जाए तेरा।

भैया भिंडी क्या भाव है

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  ० आरिफ जमाल ०  महिला सब्ज़ी वाले से - भैया भिंडी क्या भाव है ? सब्ज़ी वाला - चालीस रुपये किलो।  महिला - आधा किलो  सब्ज़ी वाला - आधा किलो पच्चीस रुपये की है  महिला - अच्छा एक पाँव दे दो,अच्छा स्केनर है ? अब सब्ज़ी वाले का मुंह देखने लायक था। 

मैंने कैंसर को जीत लिया” पुस्तक का केंद्रीय मंत्री जी. किशन रेड्डी ने किया विमोचन

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० नूरुद्दीन अंसारी ०  नई दिल्ली : इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल्स में प्रसिद्ध कैंसर विशेषज्ञ डॉ.पलकोंडा विजय आनंद रेड्डी की पुस्तक “मैंने कैंसर को जीत लिया” (I Am a Cancer Survivor) का विमोचन किया गया। यह पुस्तक कैंसर से उबर चुके 108 लोगों की प्रेरक वास्तविक कहानियों का संग्रह है जिनमें से प्रत्येक कहानी असाधारण साहस, दृढ़ संकल्प और निराशा पर आशा की विजय को दर्शाती है। इस अवसर पर केंद्रीय कोयला एवं खान मंत्री जी. किशन रेड्डी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। उन्होंने कहा, “यह पुस्तक आशा और दृढ़ता की किरण है। इसकी हर कहानी मानवीय भावना की शक्ति और शीघ्र पहचान व जागरूकता के महत्व का सशक्त उदाहरण है। इन प्रेरक यात्राओं को एक साथ लाने के लिए डॉ. विजय आनंद रेड्डी का प्रयास अनगिनत रोगियों और उनके परिवारों को यह विश्वास दिलाएगा कि कैंसर को हराया जा सकता है। अपोलो हॉस्पिटल्स की संयुक्त प्रबंध निदेशक डॉ. संगीता रेड्डी ने कहा, “कैंसर की देखभाल केवल उपचार तक सीमित नहीं है बल्कि यह प्रत्येक रोगी में विश्वास, शक्ति और सम्मान बहाल करने का प्रयास है। यह पुस्तक उस दृढ़ता की सशक्त याद दिलाती है जो ...

ग़ज़ल

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० मुहम्मद नासिर ०  बात को पहले समझना चाहिए बे वजह यूँ हीं ना हंसना चाहिए महफिलों में मस्त रहने वाले सुन कुछ लँम्हे तन्हा भी रहना चाहिए होती है तकलीफ सब हैं मानते दर्द को थोड़ा तो सहना चाहिए एक तरफा बात के माहौल में आपको भी कुछ तो कहना चाहिए कर के जाया क़ीमती लम्हात को आज नासिर को ना रोना चाहिए

नीलांबरी फाउंडेशन द्वारा मुंबई में कवयित्री समागम

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० योगेश भट्ट ०   मुंबई यूनिवर्सिटी के शंकरराव चव्हाण शिक्षण-प्रशिक्षण अकादमी भवन, सांताक्रुज,कलीना में कवयित्री सम्मेलन किया गया जिसमें देश की कवयित्रियों ने हिस्सा लिया एटा लखनऊ से आईं मुख्य अतिथि डॉ शैलजा दूबे ने अपनी प्रस्तुति से सभी श्रोताओं का मन मोह लिया तथा सभी कवयित्रियों ने भावपूर्ण रचनाएं सुनाईं  रचना पाठ करने वालों में रोमा झा तथा डॉ सुषमा शुक्ला की नई कलम ने प्रभावी रचना सुनाई। प्रसिद्ध कवयित्री तथा संस्कृत की शिक्षिका प्रमिला शर्मा को नीलांबरी फाउंडेशन का उपाध्यक्ष घोषित किया गया इसी क्रम में डाॅ प्रमोद पल्लवित द्वारा डॉ नीलिमा पाण्डेय को राष्ट्रीय लाल साहित्य साधना मंच का महाराष्ट्र प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया,उपस्थित लोग में मुख्य रूप से थे सिने कलाकार, कवयित्री, उद्घोषिका श्रुति भट्टाचार्य,अलका पाण्डेय,रेखा किंगर, अलका पाण्डेय, प्रोमिला शुक्ला, पल्लवी रानी,  लक्ष्मी यादव,उषा मधु लक्ष्मी गुप्ता,सुषमा तिवारी,उषा साहू, मनीषा श्रेयसी, अर्चना वर्मा सिंह,किरण मिश्रा, कविता पटेल, शशिकला पटेल, विद्या शर्मा, नताशा गिरी, वैष्णवी तिवारी,कृतायन पाण्डेय डॉ कृपाशंक...

नन्ही परी

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० मुहम्मद  नासिर ०  गोदी मे खेलती हुई नन्ही सी इक परी युं बन गई है जान मेरी जिस के बिन कभी मै रहना चाहूँ रह ना सकूँ उसके बिन मुझे लगता कि जिंदगी मेरी बे जान हो गई नन्ही परी तु केसे मेरी जान हो गई। हर सम्त गूंजती हैं तेरी मुस्कुराहटें दिन रात बड रही हैं मेरे घर की रोनखें। तो रोती है तो लगता कलेजा मेरा कटे ये दिल अजीब दर्द मे तेरे तड़प पड़े। तेरी अदाओं में मेरी जन्नत है बस रही दुनिया की हर खुशी मेरे हमराह चल रही।

आधी आबादी के संघर्ष की दास्तान : नीलिमा टिक्कू के “फ़ैसले” पर चर्चा

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० आशा पटेल ०  जयपुर । स्पंदन महिला साहित्यिक एवं शैक्षणिक संस्थान और राजस्थान प्रौढ शिक्षण संस्थान के तत्वावधान में नीलिमा टिक्कू के उपन्यास “फ़ैसले” पर चर्चा आयोजित की गई। चर्चा में प्रो. लाड कुमारी जैन, नन्द भारद्वाज, डॉ. दुर्गा प्रसाद अग्रवाल,डॉ. सुषमा सिंघवी, डॉ. विद्या जैन, डॉ. रेखा गुप्ता और प्रो. प्रबोध कुमार गोविल ने उपन्यास पर अपने विचार रखे । प्रौढ शिक्षा अध्यक्ष राजेन्द्र बोड़ा ने अतिथियों का स्वागत किया । डॉ. सुशीला शील ने नीलिमा का परिचय देते हुए कहा कि ये नीलिमा जी का दूसरा उपन्यास है। इससे पहले इनके पांच कहानी संग्रह, उपन्यास, व्यंग्य संग्रह,लघुकथा संग्रह और बाल कथा संग्रह , तीन संपादित किताबों सहित तेरह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए भी इन्होंने एक किताब संपादित की है। राजस्थान साहित्य अकादमी की सरस्वती सभा की सदस्य भी रह चुकी हैं। उपन्यास पर चर्चा करते हुए प्रो.लाड कुमारी जैन ने कहा उपन्यास आधी आबादी के संघर्ष उनकी अस्मिता की सशक्तता का जीवन्त दस्तावेज है।आज भी महिलाओं के लिए कदम कदम पर मुश्किलें हैं लेकिन अगर ठान लें तो अपन...

डर पर जीत ही असली जीत है

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०  श्याम कुमार कोलारे  ०  डर हमेशा हमें दूसरों का गुलाम बना देता है, यह पंक्ति जीवन का एक बहुत बड़ा सत्य अपने भीतर समेटे हुए है। इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन कोई दूसरा व्यक्ति, कोई परिस्थिति या कोई चुनौती नहीं होती, बल्कि उसका अपना डर होता है। यही डर हमें कमजोर बनाता है, आत्मविश्वास छीन लेता है और हमें दूसरों की बातों व उनके दबाव में जीने पर मजबूर कर देता है। डर का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह दिखने में वास्तविक लगता है, जबकि इसकी असली जड़ केवल हमारे मन में होती है।  जब तक हम इसे सच मानते रहते हैं, यह हमें बांधकर रखता है। लेकिन जैसे ही इंसान भीतर से हिम्मत जुटाता है और आत्मविश्वास के साथ खड़ा हो जाता है, तो वही लोग जो डराते थे, सिर झुकाकर सामने आते हैं।डर हमेशा इंसान को दूसरों का गुलाम बना देता है। यह एक साधारण-सी बात नहीं बल्कि जीवन का सबसे गहरा सच है। इंसान अक्सर दूसरों से इसलिए हार जाता है क्योंकि वह उनके डराने की कोशिश को सच मान लेता है। जब तक हम डर के अधीन रहते हैं, तब तक लोग हमें नीचा दिखाते हैं, हमें दबाते हैं और हमें अपनी शर्तों पर जीने के लिए मजबूर करते हैं। ...

दोस्ती,रिश्ता,प्यार

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० मुहम्मद नासिर ०  वक़त को लगाम नहीं है वक़्त बे लगाम है। वक़्त का चक्कर लगातार चलता रहता है। जिंदगी को कहीं क़रार नहीं। बचपन, जवानी, बुढापा अपने अपने वक़्त पर आते है, चले जाते हैं। इस तरह हर एक चीज बदल जाती है अपने अपने वक़्त पर। लेकिन रिश्ता, प्यार, और दोस्ती वक़्त के इस चक्कर में कभी बूढ़े नहीं होते। ये वो नेमते हैं जो जिंदगी के फैर में कभी बुडी नहीं होतीं। हर रोज़ जवां होती हैं। क्या खूब जवान होती हैं!

तन्हा लफ्ज़

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० मुहम्मद नासिर ०  हवा की चादर पर पलकों की कोरों से, और उदास रोशनी के रंग से तुमने लिखा था एक लफ्ज़। वो लफ्ज़ धुल गया वक़्त की बरसात में। जब भी आती है तुम्हारी याद मेरे अहसास के तिनको तले उग आता है उस लफ्ज़ का अक्स और मुझे एक बार फिर उदास कर जाता है।

ग़ज़ल

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० मुहम्मद नासिर ०  ज़माना अपनी कड़ाई को खूब भरता रहा नदी के पास खड़ा पेड़ प्यासा मरता रहा। ये फैसला कभी कर ना सका कि जाऊँ किधर तमाम उम्र यूँ ही बे मक़ाम फिरता रहा। वो मेरे साथ रहा उम्र भर मगर सब से मेरे मिज़ाज के शिकवे हज़ार करता रहा। तू अपनी ज़िद में कभी टूट कर नहीं बिखरा मैं आँसूओ से ख़ज़ाने को दिल से भरता रहा। घनी छाओं में बैठे हुए को कब ये खबर पिघलती धूप में साय बिना मैं चलता रहा।

बेटी हूँ मैं भी घर की

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o मुहम्मद नासिर o  नाज़ से पाली हुई बेटी शादी के बाद जब ससुराल जाती है तो वो पराई नहीं लगती है। शादी के बाद जब माईके आकर हाथ मुँह धोने के बाद सामने टंगे तोलिए के बजाय अपने बैग से छोटा सा रुमाल निकाल कर मुँह पोंछती है तो पराई लगती है। जब वो बावर्ची खाने के दरवाजे पर ना मालूम सी खड़ी हो जाती है। अंदर घुसने मे हिचकिचाती है तो पराई सी लगती है। जब मेज़ पर खाना लगने के बाद भी बर्तन खोल कर नहीं देखती तब प्राई लगने लगती है। जब बात बात पर गैर जरूरी क़हक़हा लगा कर खुश होने का नाटक करती है और जाते वक़्त "कब आयेगी " के जवाब में " देखो कब आना होता है कह कर जवाब देती है तो हमेशा के लिए पराई हो गई। ऐसा लगता है। लेकिन दरवाजे से बाहर निकल कर गाड़ी में बैठते वक़्त चुपके से अपनी आँखें खुश्क करने की कोशिश करती है तो सारा परायापन एक झटके में कही खो जाता है और कलेजा कट कर मुँह को आ जाता है। खामोशी की ज़बान में आँसू के भीगे कलम से दिल के ज़खमों से साफ लिखती है " हिस्सा नहीं चाहिए भाई मैका मेरा सजाय रखना। कुछ ना देना मुझे। सिर्फ मुहब्बत बरकरार रखना। बाप के इस घर में मेरी यादों को सजाय रखना...

भूल जाता हूँ

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o मुहम्मद नासिर o  लिखने बेठूं तो भूल जाता हूँ कैसी हालत में खुद को पाता हूँ तेरा पैकर मेरी निगाह में है तेरी सूरत भी मेरी चाह में है साथ तेरे गुज़ारे जो लम्हे वो मेरी सांस में बस्ते। तेरी हर एक अदा का शेदाई कान में कहती आ के पुरवाई क्यों फँसाने को आम करता है जो ना अच्छा वो काम करता है। बात उसकी समझ में आने लगी प्यार की जोत जगमगाने लगी इसलिए ज़हन जब संवरता है और काग़ज़ को वो पकड़ता है हाथ में वो कलम भी लेता है लिखूं ये फैसला भी करता है। फिर भी सब कुछ मैं भूल जाता हूँ ज़िक्र तेरा जो लिखने आता हूँ।

हाथ दूरी से मिलाना

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० मुहम्मद नासिर ०  याद आती बारहा वो जिंदगी जिस मे सच्चा हर कोई इंसान था ना कोई धोका था दिल में ना कोई हीजान था। रिश्ते दारी सीधी साधी प्यार की मोहताज थी चाहतों की दुनिया दारी रूहों की सरताज थी। ऐसे भी थे लोग जिन को फिक्र हर इंसान की थी। दुख मे देना साथ सब का उनकी ये पहचान थी। कोई अपना ना पराया ऐसा सब का साथ था गम खुशी मे साथ देता ऐसा सब का हाथ था। रंग ओ मजहब और नसल का कोई भी चक्कर ना था। प्यार की डोरी में बंध कर लोटता अक्सर नहीं था। अब हवा कैसी चली है ? खिलती कोई ना कली है। प्यार एक धोका बना है। अब ज़माने ने सुना है। कहता है कोई दीवाना " हाथ दूरी से मिलाना"

याद रखो

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o मुहम्मद नासिर o आधे अधूरे मन से क्यों करते जाते अपने काम। दिल को अपने खुद लो थाम ले के उस मालिक का नाम अपने रास्ते निकल पड़ो, मुश्किल से बिल्कुल ना डरो, इस से पहले ये समझो, दिल को क़ाबू में रखो। आधे अधूरे मन के काम रहते हैं अकसर नाकाम। खुद पे भरोसा रखो क़ायम पूरे मन से कर लो काम पूरे होंगें सब अरमान आज हक़ीक़त को पहचान। तेरी महनत रंग लायेगी दुनिया को वो बतलाएगी। मेहनत करने वालों की हार कभी ना होती है थक के रुक जाने वालों से क़िस्मत खुश ना होती है।

ग़ज़ल

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o मुहम्मद नासिर o  बैठ के तन्हाई में यूँ घर के अंदर आंसुओं को इस तरह बर्बाद ना कर। रख यक़ीं अल्लाह पर, उसके जहाँ में एक बंद होने पे खुलता दुसरा दर। मुझ को कहता डूब जाने के लिए दिल की गहराई मे तु भी तो उतर। है तबियत ठीक तो हमदम मेरे आज कल आते नहीं हो क्यों नज़र? रोना हंसना गम खुशी या दर्द हो जिंदगी हर हाल में होगी गुज़र। हो रहूँ बर्बाद मैं इस के लिए तुम ने छोड़ी है कहाँ कोई कसर? तुझ से लड़ने के लिए ए जिंदगी कस रहा हूँ आज मैं अपनी कमर। धोके अपने दे रहे थे रात दिन आज नासिर को हुई इसकी खबर।