ग़ज़ल
o मुहम्मद नासिर o
बैठ के तन्हाई में यूँ घर के अंदरआंसुओं को इस तरह बर्बाद ना कर।
रख यक़ीं अल्लाह पर, उसके जहाँ में
एक बंद होने पे खुलता दुसरा दर।
मुझ को कहता डूब जाने के लिए
दिल की गहराई मे तु भी तो उतर।
है तबियत ठीक तो हमदम मेरे
आज कल आते नहीं हो क्यों नज़र?
रोना हंसना गम खुशी या दर्द हो
जिंदगी हर हाल में होगी गुज़र।
हो रहूँ बर्बाद मैं इस के लिए
तुम ने छोड़ी है कहाँ कोई कसर?
तुझ से लड़ने के लिए ए जिंदगी
कस रहा हूँ आज मैं अपनी कमर।
धोके अपने दे रहे थे रात दिन
आज नासिर को हुई इसकी खबर।
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