ग़ज़ल
० मुहम्मद नासिर ०
ज़माना अपनी कड़ाई को खूब भरता रहा
नदी के पास खड़ा पेड़ प्यासा मरता रहा।
ये फैसला कभी कर ना सका कि जाऊँ किधर
तमाम उम्र यूँ ही बे मक़ाम फिरता रहा।
वो मेरे साथ रहा उम्र भर मगर सब से
मेरे मिज़ाज के शिकवे हज़ार करता रहा।
तू अपनी ज़िद में कभी टूट कर नहीं बिखरा
मैं आँसूओ से ख़ज़ाने को दिल से भरता रहा।
घनी छाओं में बैठे हुए को कब ये खबर
पिघलती धूप में साय बिना मैं चलता रहा।
ज़माना अपनी कड़ाई को खूब भरता रहा
नदी के पास खड़ा पेड़ प्यासा मरता रहा।
ये फैसला कभी कर ना सका कि जाऊँ किधर
तमाम उम्र यूँ ही बे मक़ाम फिरता रहा।
वो मेरे साथ रहा उम्र भर मगर सब से
मेरे मिज़ाज के शिकवे हज़ार करता रहा।
तू अपनी ज़िद में कभी टूट कर नहीं बिखरा
मैं आँसूओ से ख़ज़ाने को दिल से भरता रहा।
घनी छाओं में बैठे हुए को कब ये खबर
पिघलती धूप में साय बिना मैं चलता रहा।
टिप्पणियाँ