ग़ज़ल

० 
मुहम्मद नासिर ० 
रस्ता रोके कौन सी मुश्किल नहीं
थक के बैठा मैं किसी मंज़िल नहीं

क़त्ल कर इंसानियत की रूह का
दिख रहा क़ातिल मगर क़ातिल नहीं

खूबी हर एक तुझ में फिर ना जाने क्यों
क्यों समझता तू किसी क़ाबिल नहीं

दिल के ज़ख़्मों का लगाने पर हिसाब
कह नहीं सकता कि मैं घायल नहीं

सोचता नासिर खड़ा तन्हाई में 
जिंदगी का ये मेरी हासिल नहीं

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