मुझे लम्हा कोई उधार दे

o मुहम्मद नासिर
यूं ही सुबह शाम की दौड़ में
मैं तमाम उम्र लगा रहा।
इसे पा लूं उसको मैं जीत लूँ
इन्ही उल्फ़तों में घिरा रहा।

मगर आज शाम ए हयात में
मुझे लग रहा मैं ना जी सका
जिसे समझा हासिल ए वक़्त है
वो तो एक धोखा ए जान है।

अब इलतिजा मेरी सुन ज़रा
मुझे इस तरह से ना ले के जा
मैं भी जिंदगी को जियूँ ज़रा
मुझे तुझ से इतनी है इल्तिज़ा ।

कोई ख्वाब मेरा सँवार दे
मुझे लम्हा कोई उधार दे।

टिप्पणियाँ

infoplus ने कहा…
i like it!

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"मुंशी प्रेमचंद के कथा -साहित्य का नारी -विमर्श"

गांधी जी का भारतीय साहित्य पर प्रभाव "

"ग्लोबल अफेयर्स जयपुर ब्रेन्स ट्रस्ट" की स्थापना

वाणी का डिक्टेटर – कबीर

ऑल राज.विवि पेन्शनर्स महासंघ लामबंद सरकार के खिलाफ खोला मोर्चा

एक विद्यालय की सफलता की कहानी-बुनियादी सुविधाएँ व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए चर्चित

कोटद्वार के चिल्लरखाल रोड निर्माण समस्या को लेकर 230 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर दिल्ली पंहुचा पत्रकार